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कनुप्रिया - विप्रलब्धा / धर्मवीर भारती

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कवि: धर्मवीर भारती

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बुझी हुई राख, टूटे हुए गीत, डूबे हुए चाँद,

रीते हुए पात्र, बीते हुए क्षण-सा -

- मेरा यह जिस्म


कल तक जो जादू था, सूरज था, वेग था

तुम्हारे आश्लेष में

आज वह जूड़े से गिरे जुए बेले-सा

टूटा है, म्लान है

दुगुना सुनसान है

बीते हुए उतस्व-सा, उठे हुए मेले-सा -

मेरा यह जिस्म -

टूटे खँडहरों के उजाड़ अन्तःपुर में

छूटा हुआ एक साबित मणिजटित दर्पण-सा -

आधी रात दंश भरा बाहुहीन

प्यासा सर्वीला कसाव एक

जिसे जकड़ लेता है

अपनी गुंजलक में


अब सिर्फ मै हूँ, यह तन है, और याद है


खाली दर्पण में धुँधला-सा एक, प्रतिबिम्ब

मुड़-मुड़ लहराता हुआ

निज को दोहराता हुआ!



कौन था वह

जिस ने तुम्हारी बाँहों के आवर्त में

गरिमा से तन कर समय को ललकारा था!


कौन था वह

जिस की अलकों में जगत की समस्त गति

बँध कर पराजित थी!


कौन था वह

जिस के चरम साक्षात्कार का एक गहरा क्षण

सारे इतिहास से बड़ा था, सशक्त था!


कौन था कनु, वह,

तुम्हारी बाँहों में

जो सूरज था, जादू था, दिव्य मन्त्र था

अब सिर्फ मैं हूँ, यह तन है, और याद है।


मन्त्र-पढ़े बाण-से छूट गये तुम तो कनु,

शेष रही मैं केवल,

काँपती प्रत्यंचा-सी

अब भी जो बीत गया,

उसी में बसी हुई

अब भी उन बाहों के छलावे में

कसी हुई

जिन रूखी अलकों में

मैं ने समय की गति बाँधी थी -

हाय उन्हीं काले नागपाशों से

दिन-प्रतिदिन, क्षण-प्रतिक्षण बार-बार

डँसी हुई


अब सिर्फ मैं हूँ, यह तन है -

- और संशय है


- बुझी हुई राख में छिपी चिन्गारी-सा

रीते हुए पात्र की आखिरी बूँद-सा

पा कर खो देने की व्यथा-भरी गूँज-सा ......