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सृजन / श्याम कश्यप

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क्या गढ़ रहे हो
ओ लुहार
मेरे तन की
इस भट्टी में
कच्चा लोहा ढल रहा है

पुलटस के नीचे
जैसे पकता है घाव
धीरे-धीरे
लहू की आँच में सिकता हुआ

इस कोख में
मिट्टी का अस्तर लगा है
जड़ें धरती में दूर तक
गई हुई हैं गहरी
अनंत-असंख्य जड़ों के साथ गुँथी हुई ।