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लकीरें काटती हैं / केदारनाथ अग्रवाल

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लकीरें काटती हैं लकीरों को
वक्र होकर
उलटकर
मुँह से
पूँछ से
पेट से
आदमियत से वंचित
पशुत्व की प्रतीक
स्रष्टा को सरापतीं
फटे सूर्य की दुनिया में

रचनाकाल: ०६-०८-१९६७