Last modified on 29 अक्टूबर 2010, at 19:46

एक बच्चा हँसा / केदारनाथ अग्रवाल

Dkspoet (चर्चा | योगदान) द्वारा परिवर्तित 19:46, 29 अक्टूबर 2010 का अवतरण (नया पृष्ठ: {{KKGlobal}} {{KKRachna |रचनाकार=केदारनाथ अग्रवाल |संग्रह=कुहकी कोयल खड़े पेड़ …)

(अंतर) ← पुराना अवतरण | वर्तमान अवतरण (अंतर) | नया अवतरण → (अंतर)

मर गया हूँ मैं
पड़ोस की बूढ़ी औरत के मरने पर
जनाजा उठने के बाद
एक बच्चा हँसा
और फिर रोया
मरा हुआ मैं....जी उठा
और फिर उसे गोद में उठा लिया
लगा, कि कोई नहीं मरा
सूरज, अब भी चल रहा था
रिक्शे पर दुनिया दौड़ रही थी
वह सड़क जो कभी नहीं उठी थी
उठ बैठी
और उसने मुझे लपेट लिया
मुझे प्रतीत हुआ कि मैं
खिले हुए गुलाब के बाग में हँस रहा हूँ
मेरी बातों में जिंदगी दौड़ती हुई हरहराने लगी
मैंने बुढ़िया के दरवाजे झूमते बादल का हाथी बाँध दिया
और उसका घंटा बजने लगा
शून्य के उड़ते हुए गोले फट गए
और वियतनाम की लड़ती हुई जनता
मौत को मारने लगी
मेरी गोद का बच्चा सूरज के रथ पर बैठकर
दुनिया की सैर करने लगा
और वाशिंगटन पहुँचकर, उसने जान्सन के सिर पर
एक टीप मारी
गैलपपोल में जनता ने तालियाँ बजा दीं
और कॉसीगिन ने
माओ की ओर मुँह बिरा दिया
तभी मैंने पढ़ा
कि लोहिया बीमार हैं
इंदिरा गाँधी तीमारदार हैं
कविता ने कहा ‘अब बस करो’
थोड़ा कहा बहुत समझना

रचनाकाल: १९६७