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तुम / अनिल जनविजय

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रचनाकारः अनिल जनविजय

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तुम इतनी क्रूर होंगी

जानता न था

आक्रोश से भरपूर होंगी

मन मानता कहाँ था

मुझे देख

गर्दन घुमाकर चला गईं तुम

कपाट पर

साँकल चढ़ाकर चली गईं तुम


और मैं चकित खड़ा था

तुम्हारे दरवाज़े पर

अवशिष्ट-सा थकित पड़ा था

तुम्हारे दरवाज़े पर