भारत की संस्कृति के लिए... भाषा की उन्नति के लिए... साहित्य के प्रसार के लिए

यही, हाँ, यही / अज्ञेय

Kavita Kosh से
अनिल जनविजय (चर्चा | योगदान) द्वारा परिवर्तित 17:11, 3 फ़रवरी 2011 का अवतरण (नया पृष्ठ: {{KKGlobal}} {{KKRachna |रचनाकार=अज्ञेय |संग्रह=आँगन के पार द्वार / अज्ञेय }} {{KKCatKavita}}…)

(अंतर) ← पुराना अवतरण | वर्तमान अवतरण (अंतर) | नया अवतरण → (अंतर)
यहाँ जाएँ: भ्रमण, खोज

यही, हाँ, यही-
कि और कोई बची नहीं रही
उस मेरी मधु-मद-भरी
रात की निशानी :
एअक यह ठीकरे हुआ प्याला
कहता है-
जिसे चाहो तो मान लो कहानी ।

और दे भी क्या सकता हू~म हवाला
उस रात का :
या प्रमाण अपनी बात का ?
उस धूमयुक्त कम्पहीन
अपने ही ज्वलन के हुताशन के
ताप-शुभ्र केन्द्र-वृत्त में
उस युग साक्षात का ?

यों कहीं तो था लेखा :
पर मैंने जो दिया, जो पाया,
जो पिया, जो गिराया,
जो ढाला, जो छलकाया,
जो नितारा, जो छाना,
जो उतारा, जो चढ़ाया,
जो जोड़ा, जो तोड़ा, जो छोड़ा-
सब का जो कुछ हिसाब रहा, मैंने देखा
कि उसी यज्ञ-ज्वाला में गिर गया ।
और उसी क्षण मुझे लगा कि अरे, मैं तिर गया
-ठीक है मेरा सिर फिर गया ।

मैं अवाक हूँ, अपलक हूँ ।
मेरे पास और कुछ नहीं है
तुम भी यदि चाहो
तो ठुकरा दो :
जानता हूँ कि मैं भी तो ठीकरा हूँ ।
और मुझे कहने को क्या हो
जब अपने तईं खरा हूँ ?