उजड़ा संगीत / भरत ओला
हां
यहीं था मेरा गाँव
यहीं था पनघट
लंहगे-बोरले में
बणी-ठणी
बास गुवाड़ की लुगाईयां
जच्चा संग आती
सुगणी बुआ
पराते चके सिर पर
‘पीळो’ गाती
टींगर धमकाती
घूघरी बांटती
यहीं हुआ करता था दंगल
दंड पेलते
मुगदर फिराते
धींगामस्ती करते
लड़ा करते थे कुस्ती
चमक चानणी रात में
बजा करते थे डफ
गाई जाती थी धमाल
हुआ करती थी घोड़ा कबड्डी
यहीं जोहड़ की पाल पर
हुआ करता था जाल
इसी पर
खेला करते थे कुर्रांडंडा
यहीं हुआ करता था ताल
गुल्लीडंडा, मारदड़ी, घुथागिंडी
लगा करते थे टोरे
पिदाया करते थे टींगरों को
यहीं, यहीं
टणमणाया करती थीं
बैलों के गलें में घंटियां
रेहडू पर बैठा रामदीन
बजाया करता था अलगोजे
हांडीबगत
बजता था ऊखल-मूसल का संगीत
टिक जाती थी खिचड़ी
हारे बीच
हाली आता
पाटड़े पर बैठ नहाता
आंगण बीच पसारा मार
सबड़कता चारों ओर
जिन्दगी का रोजमर्रा संगीत
कहां गया वह गांव
वह गीत
किसने तोड़ी भला
यह रीत ?