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भूल सकते तुम्हें तो कब का भुला देते हम / सिराज फ़ैसल ख़ान
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भूल सकते तुम्हेँ तो कब का भुला देते हम
ख़ाक जो होती मोहब्बत तो उड़ा देते हम
ख़ुदकुशी जुर्म ना होती ख़ुदा की नज़रोँ मेँ
कब का इस जिस्म को मिट्टी मेँ मिला देते हम
बना रख्खी हैँ तुमने दूरियाँ हमसे वर्ना
कोई दीवार जो होती तो गिरा देते हम
तुमने कोशिश ही नहीँ की हमेँ समझने की
फिर भला कैसे तुम्हेँ हाल सुना देते हम
आपने आने का पैग़ाम तो भेजा होता
तमाम शहर को फूलोँ से सजा देते हम