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जिद्दी लतर / अरुण कमल

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रचनाकारः अरुण कमल

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लतर थी कि मानती ही न थी

मैंने कई बार उसका रुख बदला

एक बार तागा बाँधकर खूँटी से टाँगा

फिर पर्दे की डोर पर चढ़ा दिया

कुछ देर तक तो उँगलियों से ठेलकर

बाहर भी रक्खा

लेकिन लतर थी कि मानती ही नहीं थी

एक झटके से कमरे के अन्दर


और बारिश बहुत तेज़

बिल्कुल बिछावन और तकिए तक

मारती झटास


लेकिन खिड़की बन्द हो तो कैसे

आदमी हो तो कोई कहे भी

आप मनी प्लांट की उस जिद्दी लतर को

क्या कहिएगा

जिसकी कोंपल अभी खुल ही रही हो ?