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वृन्द के दोहे / भाग १

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नीति के दोहे / वृन्द




वृन्द


दोहे


वृन्द


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रागी अवगुन न गिनै ,यहै जगत की चाल ।

देखो ,सबही श्याम को ,कहत ग्वालन ग्वाल ॥1
अपनी पहुँ विचार विचारिकै ,करतब करिये दौर ।
तेते पाँव पसारिये , जेती लाँबी सौर ॥2

कैसे निबहै निबल जन , करि सबलन सों गैर ।
जैसे बस सागर विषै , करत मगर सों बैर॥3

विद्या धन उद्यम बिना ,कहो जू पावै कौन ।
बिना डुलाये ना मिलै ,ज्यौं पंखा की पौन ॥4

बनती देख बनाइये ,परन न दीजै खोट ।
जैसी चलै बयार तब ,तैसी दीजै ओट ॥5

मधुर वचन ते जात मिट ,उत्तम जन अभिमान ।
तनिक सीत जल सों मिटै ,जैसे दूध उफान ॥ 7

सबै सहायक सबल के ,कोउ न निबल सहाय ।
पवन जगावत आग को ,दीपहिं देत बुझाय ॥ 8

अति हठ मत कर हठ बढ़े ,बात न करिहै कोय ।
ज्यौं –ज्यौं भीजै कामरी ,त्यौं-त्यौं भारी होय ॥9

लालच हू ऐसी भली ,जासों पूरे आस ।
चाटेहूँ कहुँ ओस के , मिटत काहु की प्यास ॥ 10