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मेरे गाँव का बसंत / ओमप्रकाश सारस्वत

कानून
जब नगर के किसी खास हिस्से की
घेर लेता है सशरीर
देह पर कंटीली तारें लपेट
एक भीमकाय दीवार की तरह
तो लोग
उसे जेल का नाम दे देते हैं
(अब जेलें सुधार-गृह हो गये हैं)

जबकि जेल
दीवारों की ही नहीं
मन की भी होती है

जेलः जहाँ भगवान भी रहे थे कुछ मास
(जन्म से पूर्व)
(तब से जेलें मन्दिर भी कहलाती है)
वहाँ जाना
लोग गौरव की बात समझते हैं जेलों ने बहुतों को गौरवशाली बनाया है

(आपने कईयों को
छाती फुला-फुला कर
जेलों को गीता की तरह गाते हुए
सुना होगा)

कितनों ने ही
जेल यात्रा की
इतिहास की तरह
लिख डाला है

जेलों ने चिच्छक्ति को
योग शक्ति की तरह जगाया है
और इस हद तक बहकाया है कि
वे अब खुद को पहचानना तक भूल गये हैं

हमारे एक मित्र ने हैं
जो कुछ दिन हुए जेल से छूट के आए हैं
(उन्हें दूसरी पार्टी का झण्डा चुराने के अपराध
में जेल हुई थी)

कहते हैं
जेल एक करिश्मा है
(यह कहते हुए वे आपाद मस्तक काँपते हैं)

वह एक ऐसा चश्मा है
जो सबको देखता है
समत्व भाव से

(जबकि जेले के यात्री ?
स्वयं को हंसों की तरह
एक दूसरे से उज्ज्वलतर ही समझते हैं
वे मित्र नेता
अब हरेक मंच पर
(माईक को अपने गले का असमर्थ प्रचारक समझते हुए)

केवल पंचम में अलापते हैं
य्अह धुन कि भाईयों !
अपने सुधार में जुट जाईये
'उद्धरेदात्मनात्मानम्'
(वे बीच-बीच में गीता को टोटकों की तरह बोलते हैं)
इसके लिए
भले ही जेल जाईये
गोली खाईये
पर अपने लिये
कम-अज-कम
एक मँच
जरूर जुटाईये