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वसंत की आस-2 / कर्णसिंह चौहान

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दबी साँसों की भाप से पिघलने लगी है बर्फ़
लगे है ज़िंदगी की धड़कन अभी रुकी नहीं ।
यूँ तो कब के उतर चुके इस शहर से झंड़े
ये ऊँची इमारतें पूरी झुकी नहीं ।

ध्वस्त परकोटे, सींखचे, दीवार, ज़ंजीरें
लोगों को घूरती निगाह पर हटी नहीं ।
नया जोश, नया राज, नया सूरज औ’ चाँद हैं
गर्दिश की घटाएँ फिर भी छटी नहीं ।

बड़े फरेबी औ’ खुद्दार हैं ये ठूँठ बने पेड़
वसंत देखने की चाह अब भी मिटी नहीं ।