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वर्ष 1972 / वसंत त्रिपाठी

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ज़िन्दगी, तुम्हारी असंख्य उलझी शिराओं में
एक फूल की तरह
डाली पर, मैं, खिला
माली के पसीने की चमक
झलकती ओझल होती हुई मुझमें
इस जन्म के लिए मैंने
पिछली किसी शताब्दी में
प्यार को बीज की तरह बोया था
अनेक गुज़रते अंधड़ों, अटपटे मौसमों
कीटों की ज़बरदस्त फौज
और घोड़ों की नाल से लहूलुहान धरती के नीचे

बड़ा दुर्गम था वह समय

पृथ्वी ने आसमान को सौंप दिया था
तपे लोहे के रंग का सूरज
और बिलख रही थी
उदार दिखते उनींदे तानाशाहों के शयनकक्ष में
लेकिन संगीत की याद में तड़पते किसी नन्हें दिल की तरह
बची रही धरती में साँसें

शताब्दियों बाद
बलखाती पुष्ट नीम की पनियों पर
सोना उड़ेलता सूरज
जब चिड़िया के कोमल पंखों को छुआ
और गिलहरियों ने अपनी पिछली टांगों पर बैठ कर
चूमे तुम्हारे हाथ
तभी डाली पर, मैं, खिला

मैं खिला प्यार को बीज की तरह
सीने में धारण किए हुए
मूल्य खो चुकी सम्पत्ति की तरह सहेज कर उसे

लेकिन समय मेरी आशाओं के विरुद्ध
अब भी था उतना ही भयंकर
बमवर्षक विमानों से
अभी तक उठ रही थी बारूद के धुँए की ताज़ा गंध
सरहदी हत्यारे पुरस्कृत हो रहे थे राजधानी में
युद्ध को राष्ट्रभक्ति का दूसरा नाम
ऐलान कर दिया गया था
मैं जन्मा
और मेरी चौंकती आँखों में
बचे-खुचे लोकतंत्र के ढहने की धूल थी
सपनों से
मरे हुए चूहे की गंध उठती थी
जिसे पार नहीं कर सकी
मेरे मुँह से उठती कच्चे दूध की गंध

बाद में आसमानी सितारे
देर तक अंगार वृष्टि करते रहे
जलती हुई उल्काएँ
विलीन होती रहीं सागरी जल में
धरती की सिसकती पीठ पर
कोड़े फटकारते रहे राजनीतिज्ञ

उन्माद...हाँ उन्माद ही था
बरसता हुआ, टपकता हुआ
समय ने मुस्कुराते हुए करवट बदली
और देश उसकी काँख में बिलबिला गया
और कुछ शातिर लोगों ने
हंसी हँसी में देश की खोपड़ी तोड़ दी
तड़...तड़...तड़...