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बरखा / राकेश खंडेलवाल
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किसी देवांगना के
स्नात केशों से गिरे मोती
विदाई में
अषाढ़ी बदलियों ने
अश्रु छलकाए
किसी की पायलों के घुँघरुओं ने
राग है छेड़ा
किसी गंधर्व ने आकाश
में पग आज थिरकाए
उड़ी है मिटि्टयों से सौंध जो
इस प्यास को पीकर
किसी के नेह के उपहार का
उपहार है शायद
चली अमरावती से आई है
यह पालकी नभ में
किसी की आस का बनता
हुआ संसार है शायद
सुराही से गगन की एक
तृष्णा की पुकारों को
छलकता गिर रहा मधु आज
ज्यों वरदान इक होकर
ये फल है उस फसल का जो
कि आशा को सँवारे बिन
उगाई धूप ने है
सिंधु में नित बीज
बो बो कर