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तुलना / दुष्यंत कुमार

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गडरिये कितने सुखी हैं ।

न वे ऊँचे दावे करते हैं

न उनको ले कर

एक दूसरे को कोसते या लड़ते-मरते हैं।

जबकि

जनता की सेवा करने के भूखे

सारे दल भेडियों से टूटते हैं।

ऐसी-ऐसी बातें

और ऐसे शब्द सामने रखते हैं

जैसे कुछ नहीं हुआ है

और सब कुछ हो जाएगा ।

जबकि

सारे दल

पानी की तरह धन बहाते हैं,

गडरिये मेडों पर बैठे मुस्कुराते हैं

– भेडों को बाड में करने के लिए

न सभाएँ आयोजित करते हैं

न रैलियाँ,

न कंठ खरीदते हैं, न हथेलियाँ,

न शीत और ताप से झुलसे चेहरों पर

आश्वासनों का सूर्य उगाते हैं,

स्वेच्छा से

जिधर चाहते हैं ,उधर

भेडों को हाँके लिए जाते हैं ।

गडरिये कितने सुखी हैं ।