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कवितावली/ तुलसीदास / पृष्ठ 13

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वन में

प्रेम सों पीछें तिरीछें प्रियाहि चितै चितु दै चले लै चितु चोरैं।

स्याम समीर पसेउ लसै हुलसै ‘तुलसी’ छाबि सेा मन मोरेैं।

लोचन लोल, चलैं भृकुटी कल काम कमानहु सेा तृनु तोरैं।
  
राजत राम कुरंगके संग निषंगु कसे धनुसों सरू जोरैं।26।


सर चारिक चारू बनाइ कसें कटि, पानि सरासनु सायकु लै।

बन खेलत रामु फिरैं मृगया, ‘तुलसी’ छबि सो बरनै किमि कै।।

अवलोकि अलौकिक रूपु मृगीं मृग चौकि चकैं, चितवैं चितु दै।।

न डगैं जियँ जानि जियँ सिलीमुख पंच धरैं रति नायकु है।27।


बिंधिके बासी उदासी तपी ब्रतधारी महा बिनु नारि दुखारे।

गौतमतीय तरी ‘तुलसी’ सो कथा सुनि भे मुनिबृंद सुखारे।।

ह्वैहैं सिला सब चंदमखीं परसें पद मंजुल कंज तिहारे।

कीन्ही भली रघुनायकजू! करूना करि काननको पगु धारें।28।

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