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माँ मुझे मत दो (कविता) / पूनम तुषामड़

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बीन कर घर-घर से कूड़ा
मांग कर लाई जो रोटी
माँ मुझ मत दो।

मैं नहीं पहनूंगी उतरन
मैं नहीं खाऊंगी जूठन
मैं नहीं मांजूगी बरतन
ऐसी जिल्लत ऐसा जीवन
मां मुझे मत दो।

क्यूं बनें वे श्रेष्ठ
और हम नीच क्यों हैं?
आखिर इतना फांसला
इंसानियत के बीच क्यूं है?
मत सहो कुछ तो कहो।
ये अनादर ये विषमता
मां मुझे मत दो।

मांगने से हक नहीं
सबको मिला है
छीन लो गर...
छीनने का हौंसला है।
ये गलत है मान लो तुम
अपनी इज्ज़त जान लो तुम
वे बड़े कहलाएं
तुम कहलाओ छोटी
इस तरह अपमान का विष
माँ मुझे मत दो।

फेंक दो ये झाडू तसली
जानो तुम पहचान असली
झाडू़, तसली और
कूड़े की विरासत
माँ मुझे मत दो।

मुझको पढ़ना आगे बढ़ना
खुद को नए सांचे में गढ़ना
और सबको है जगाना
सबको उनका हक दिलाना
मांग कर खाने की आदत
और नसीहत
माँ मुझे मत दो।

गर है मेरी जात भंगी
क्या बुरा है?
उसको लेकर आदमी
नज़रों में अपनी
क्यों गिरा है?
क्यों छिपाता है वो जाति?
क्यूं है उसको शर्म आती?
शर्म और अपमान का मन
माँ मुझे मत दो।
मुझमें है लड़ने की ताकत
मुझमें है बढ़ने की हिम्मत
मुझमें है रचने की क्षमता
बेटी हूं ये कह के
मुझको रोको न तुम
दे ज़माने की दुहाई
टोको न तुम
घर में रह कर
काम करने की हिदायत
माँ मुझे मत दो।