भारत की संस्कृति के लिए... भाषा की उन्नति के लिए... साहित्य के प्रसार के लिए

एक उदास साँझ / अज्ञेय

Kavita Kosh से
अनिल जनविजय (चर्चा | योगदान) द्वारा परिवर्तित 18:33, 2 फ़रवरी 2011 का अवतरण (नया पृष्ठ: {{KKGlobal}} {{KKRachna |रचनाकार=अज्ञेय |संग्रह=आँगन के पार द्वार / अज्ञेय }} {{KKCatKavita}}…)

(अंतर) ← पुराना अवतरण | वर्तमान अवतरण (अंतर) | नया अवतरण → (अंतर)
यहाँ जाएँ: भ्रमण, खोज

सूने गलियारों की उदासी ।
गोखों में पीली मन्द उजास
स्वयं मूर्च्छा-सी ।
थकी हारी साँसे, बासी ।

चिमटी से जकड़ी-सी नभ की थिगली में
तारों की बिसरी सुइयाँ-सी
यादें : अपने को टटोलतीं
सहमीं, ठिठकी, प्यासी ।

हाँ, कोई आकर निश्चय दिया जलाएगा
दिपता-झपता लुब्धक सूने में कभी उभर आएगा ।
नंगी काली डाली पर नीरव
धुँधला उजला पंछी मँडराएगा ।
हाँ, साँसों ही साँसों में रीत गया
अंतर भी भर आएगा ।
पर वह जो बीत गया- जो नही रहा-
वह कैसे फिर आएगा ?