भारत की संस्कृति के लिए... भाषा की उन्नति के लिए... साहित्य के प्रसार के लिए
गृहस्थी : चार आयाम / धूमिल
Kavita Kosh से
Pratishtha (चर्चा | योगदान) द्वारा परिवर्तित 02:55, 20 नवम्बर 2007 का अवतरण
1
मेरे सामने
तुम सूर्य - नमस्कार की मुद्रा में
खड़ी हो
और मैं लज्जित-सा तुम्हें
चुप-चाप देख रहा हूँ
(औरत : आँचल है,
जैसा कि लोग कहते हैं - स्नेह है,
किन्तु मुझे लगता है-
इन दोनों से बढ़कर
औरत एक देह है)
2
मेरी भुजाओं में कसी हुई
तुम मृत्यु कामना कर रही हो
और मैं हूँ-
कि इस रात के अंधेरे में
देखना चाहता हूँ - धूप का
एक टुकड़ा तुम्हारे चेहरे पर
3
रात की प्रतीक्षा में
हमने सारा दिन गुजार दिया है
और अब जब कि रात
आ चुकी है
हम इस गहरे सन्नाटे में
बीमार बिस्तर के सिरहाने बैठकर
किसी स्वस्थ क्षण की
प्रतीक्षा कर रहे हैं
4
न मैंने
न तुमने
ये सभी बच्चे
हमारी मुलाकातों ने जने हैं
हम दोनों तो केवल
इन अबोध जन्मों के
माध्यम बने हैं