कवितावली/ तुलसीदास / पृष्ठ 19
(लंकादहन -2)
बसन बटोरि बोरि-बोरि तेल तमीचर,
खोरि-खोरि धाइ आइ बाँधत लँगूर हैं।
तैसो कपि कौतुकी डेरात ढीले गात कै-कै,
लातके अधात सहै, जीमें कहै, कूर हैं।।
बाल किलकारी कै-कै, तारी दै-दै गारी देत,
पाछें लागे, बाजत निसान ढोल तूर हैं।।
बालधी बढ़न लागी, ठौर -ठौर दीन्हीं आगी,
बिंधकी दवारि कैधौं कोटिसत सूर हैं।3।
लाइ-लाइ आगि भागे बालजाल जहाँ तहाँ,
लघु ह्वै निबुकि गिरि मेरूतें बिसाल भो।
कौतुकी कपीसु कुदि कनक-कँगूराँ चढ्यो,
रावन-भवन चढ़ि ठाढ़ेा तेहि काल भो।।
‘तुलसी’ विराज्यो ब्योम बालधी पसारि भारी,
देखें हहरात भट, कालु सो कराल भो।।
तेजको निदानु मानेा कोटिक कृसानु-भानु,
नख बिकराल, मुखु तेसो रिस लाल भो।4।
बालसी बिसाल बिकराल, ज्वालजाल मानो ।
लंक लीलिबेको काल रसना पसारी हैं।
कैधों ब्योमबीधिका भरे हैं भूरि धूमकेतु,
बीररस बीर तरवारि सो उधारी है।
‘तुलसी’ सुरेस-चापु, कैधों दामिनि-कलापु,
कैंधों चली मेरू तें कृसानु-सरि भारी है।
देखें जातुधान-जातुधानीं अकुलानी कहैं,
काननु उजार्यो, अब नगरू प्रजारिहैं।5।
जहाँ-तहाँ बुबुक बिलोकि बुबुकारी देत,
जरत निकेत, धावौ, धावौ लागी आगि रे।।
कहाँ तातु-मातु, भ्रात-भगिनी, भामिनी-भाभी,
ढोटा छोटे छोहरा अभागे भोंडे भागि रे।।
हाथी छोरौ, घोरा छोरौ, महिष बृषभ छोरौ,
छेरि छोरौ, सोवै सो जगावौ , जागि, जागि रे।।
‘तुलसी’ बिलोकि अकुलानी जातुधानीं कहैं,
बार-बार कह्यौं , प्रिय! क्पिसों न लागि रे।6।