मातृभाषा-मृतभाषा / गिरिराज किराडू
राजस्थानी कवि और मित्र नीरज दइया के लिए
वह कुछ इतने सरल मन से, लेकिन थोड़ा शर्मसार खुद पर हंसते हुए यह बात
बोल गया कि यकीन नहीं हुआ यह सचमुच प्रेम में होने वाली भूल जैसी कोई बात है
उसे कविता उसके जीसा सौंप गये थे या शायद कविता को उसे जीसा जिन्होंने
कभी कोटगेट पर कोई कविता नहीं लिखी पर आपनी एक कविता में जीसा का
श्राद्ध करते हुए उसने एक पत्तल कोटगेट के लिए भी निकाली थी और मुझे तो
उसे देखते ही उसके उन्हीं जीसा की भावना होती थी कभी देखा नहीं जिन्हें मैंने
हाँ सिर्फ प्रेम में ही ऐसा हो सकता है मैंने देखा मेरे सामने चार भाषाओं के नाम
लिखे हैं और उनमें एक मेरी भाषा भी है हाँ यह प्रेम ही था मृत को मातृ पढ़ा मैंने
और चाहे कोई गवाह नहीं था किसी ने नहीं देखा पर अपनी भाषा को मृत कहा
मैंने यकीन मानो यह सिर्फ़ प्रेम के कारण हुआ वह भाषा जो जीसा सौंप गये थे मुझे
उसे मृत लिखा मैंने
यह उसके कहे हुए का अनुवाद है
मैं कविता ‘उसकी’ मातृभाषा में नहीं लिखता
यह जानता है वो
अनुवाद में जीसा को जीसा ही लिखना कहा उसने
(चित्रः शिव कुमार गाँधी, प्रथम प्रकाशनः दैनिक भास्कर)