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नारियल की देह / उमेश चौहान

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सुघड़ चिकने पय भरे फल,
वक्ष पर ताने खड़ा,
नवयौवना-सा,
झूमता है नारियल तरु,
मेघ से रिमझिम बरसते,
नीर का संगीत सुनता,
गुनगुनाता साथ में कुछ,
  
थरथराते पात भीगे,
शीश पर लटके लटों से,
भर रही आवेश उनमें,
छुवन बूंदों की निरन्तर,
पवन का झोंका अचानक,
खींच लाता उसे मुझ तक,
खुली खिड़की की डगर,
भींच कर के स्निग्धता उसकी समूची,
बाहुओं के पाश में निज,

मैं चरम पर हूँ,
परम उत्तेजना के,
निरत इस आनन्द में ही,
उड़ गया कब संग पवन के,
यह नहीं मालूम मुझको,
झूमता अब मैं वहाँ,
उस तरु-शिखर पर,
भीगता लिपटा हुआ,
उस नारियल की देह से ।