भारत की संस्कृति के लिए... भाषा की उन्नति के लिए... साहित्य के प्रसार के लिए
विष-पुरुष / रणजीत
Kavita Kosh से
अनिल जनविजय (चर्चा | योगदान) द्वारा परिवर्तित 21:13, 30 जून 2011 का अवतरण (नया पृष्ठ: {{KKGlobal}} {{KKRachna |रचनाकार=रणजीत |संग्रह=प्रतिनिधि कविताएँ / रणजीत }} {{KKCatKavita…)
पास मत आओ मेरे
मुझसे न पूछो बात कोई
मत बढ़ाओ हाथ मेरी ओर तुम सम्पर्क का -
मैं विष-पुरुष हूँ ।
बहुत संक्रामक हुआ करते हैं नीले ज़हर के कीड़े
कहीं ऐसा न हो
इस ज़हर की लहरें
तुम्हारी धमनियों के रक्त में भी उमड़ने लग जाएँ
आग
अन्तर में दबाए हूँ जिसे मैं
झपट कर कोई लपट उसकी तुम्हें छूले
कि वे चिन्गारियाँ जो
युगों से सोई हुई हैं सर्द साँसों में तुम्हारी
आज फिर जग जाएँ
इसलिए मुझसे बचो
ओ वर्तमान को ज्यों का त्यों स्वीकार
ज़िन्दगी जी लेने की बात सोचने वालो !
आजकल विष बाँटता हूँ मैं !!