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दिन ढले शिकवे शिकायत रंजशों की रात है / शारदा कृष्‍ण

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दिन ढले शिकवे शिकायत रंजशों की रात है,
मर्ज इतना ही नहीं है, और भी कुछ बात है।
घर हथेली पर उठाये चल पडी हैं चींटियाँ,
मत्त-गज के पग तले, उनकी कहाँ औकात है।
जा रहे हैं गीत गाते पंछियों के काफले,
आँधियाँ बिफरीं, शिकारी भी उसी के साथ हैं।
कल पहाडी से उतर फिर एक बुत ओझल हुआ,
तू बता सूरज ! ये हत्या है कि या अपघात है।
पूछ हमसे क्यूँ यहाँ ताले जुबां पर हैं लगे,
हादसे इन बस्तियों के वास्ते सौगात है ।
आ जरा नीचे उतर, ऐ आसमां बातें करें,
तू जमीं से दूर इतना, बेसबब बेबात है।