भारत की संस्कृति के लिए... भाषा की उन्नति के लिए... साहित्य के प्रसार के लिए
मुक्तिबोध के नाम / दिविक रमेश
Kavita Kosh से
अनिल जनविजय (चर्चा | योगदान) द्वारा परिवर्तित 12:35, 28 सितम्बर 2007 का अवतरण
सुनो मुक्तिबोध, सुनो!
देखा था जिनको तुमने
शामिल
अंधेरे की शोभा-यात्रा में
वे जो
तुम्हारे युग में
केवल अंधेरे में नंगा होने का साहस करते थे--
वे जिनको तुमने हठात
खिड़की खोल झाँक लिया था
और जो भाग पड़े थे...
तुम तो निकल गए, कहीं दूर
उनकी सज़ा हम पा रहे हैं।
सुनो
वे सब
वही सब/ फिर दोहरा रहे हैं ।
उन्हें अब अंधेरों की ज़रूरत नहीं ।
वे दौड़ते आ रहे हैं
दिन-दहाड़े
चौराहों पर ।
नहीं-नहीं
अब मुझे शक होता है
उस पर भी
जो लेखक बन
जेल में मर गया ।