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मशालें / कुमार विकल
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प्रियजन जो कभी मशालों की तरह जलते थे
धीरे-धीरे बुझ रहे हैं
औ' मेरे इर्द-गिर्द
जो रोशनी के अनेक घेरे थे
दुश्मन अंधेरों के आगे झुक रहे हैं
नहीं, यह कभी नहीं हो सकता
मैं इन मशालों को फिर से जलाऊँगा
चाहे, मैं ख़ुद होम हो जाऊँगा ।