भारत की संस्कृति के लिए... भाषा की उन्नति के लिए... साहित्य के प्रसार के लिए

दफ़्तर के बाद-२ / रमेश रंजक

Kavita Kosh से
अनिल जनविजय (चर्चा | योगदान) द्वारा परिवर्तित 11:30, 19 दिसम्बर 2011 का अवतरण ('{{KKGlobal}} {{KKRachna |रचनाकार=रमेश रंजक |संग्रह=गीत विहग उतरा / रम...' के साथ नया पन्ना बनाया)

(अंतर) ← पुराना अवतरण | वर्तमान अवतरण (अंतर) | नया अवतरण → (अंतर)
यहाँ जाएँ: भ्रमण, खोज

रात आधी हो गई है
दिवस दूना
नींद पूरी भर नहीं पाती
धूप गुब्बारे सरीकी
फैलती जाती ।
रात आधी...

कुहनियों के काँपते समकोण पर
पत्थर टिकाए
एक लघु छैनी निरन्तर छाँटती है
अधगढ़ी मूरत लिए घर लौटती
करवट बदल कर छाँह
पीड़ा झाँकती है

फूटते ही पसलियों का दर्द
छलनी हो गई छाती
नींद पूरी भर नहीं पाती
रात आधी हो गई है
दिवस दूना ।