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चलत देखि जसुमति सुख पावै / सूरदास

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राग धनाश्री


चलत देखि जसुमति सुख पावै ।
ठुमुकि-ठुमुकि पग धरनी रेंगत, जननी देखि दिखावै ॥
देहरि लौं चलि जात, बहुरि फिर-फिरि इत हीं कौं आवै ।
गिरि-गिरि परत बनत नहिं नाँघत सुर-मुनि सोच करावै ॥
कोटि ब्रह्मंड करत छिन भीतर, हरत बिलंब न लावै ।
ताकौं लिये नंद की रानी, नाना खेल खिलावै ॥
तब जसुमति कर टेकि स्याम कौ, क्रम-क्रम करि उतरावै ।
सूरदास प्रभु देखि-देखि, सुर-नर-मुनि बुद्धि भुलावै ॥

भावार्थ :-- (कन्हाईको) चलते देखकर माता यशोदा आनन्दित होती हैं, वे पृथ्वीपर ठुमुक ठुमुककर (रुक-रुककर) चरण रखकर चलते हैं और माताको देखकर उसे (अपना चलना) दिखलाते हैं (कि मैया ! अब मैं चलने लगा) देहलीतक चले जाते हैं और फिर बार-बार इधर ही (घरमें) लौट आते हैं । (देहली लाँघनेमें) गिर-गिर पड़ते हैं, लाँघते नहीं बनता, इस क्रीड़ा से वे देवताओं और मुनियोंके मनमें भी संदेह उत्पन्न कर देते हैं (कि यह कैसी लीला है ?) जोकरोड़ों ब्रह्माण्डोंका एक क्षणमें निर्माण कर देते हैं और फिर उनको नष्ट करनेमें भी देर नहीं लगाते, उन्हें अपने साथ लेकर श्रीनन्दरानी नाना प्रकारके खेल खेलाती हैं, (जब देहरी लाँघते समय गिर पड़ते हैं । तबश्रीयशोदाजी हाथ पकड़कर श्यामसुन्दर को धीरेधीरे देहली पार कराती हैं । सूरदासकेस्वामीको देख-देखकर देवता, मनुष्य और मुनि भी अपनी बुद्धि विस्मृत कर देते हैं (विचार-शक्ति खोकर मुग्ध बन जाते हैं) ।