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काग़ज़ का टुकड़ा / अवनीश सिंह चौहान

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उठता-गिरता-मुड़ता जाए
काग़ज़ का टुकड़ा

कभी पेट की चोटों को
आँखों में भर लाता
और अकेले में मन ही मन
टीसों को गाता

अंदर-अंदर कुढ़ता जाए
काग़ज़ का टुकड़ा

कभी फ़सादों में उलझा
तकली बनकर नचा
टूटे-फूटे शीशे में
अपना चेहरा बांचा

घटनाओं से जुड़ता जाए
काग़ज़ का टुकड़ा

कभी कोयले-सा जलता
राख बना तो रोया
माटी में मिल जाने पर
सदा-सदा को सोया

हल चलने पर गुड़ता जाए
काग़ज़ का टुकड़ा