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हरि-कर राजत माखन-रोटी / सूरदास

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हरि-कर राजत माखन-रोटी ।
मनु बारिज ससि बैर जानि जिय, गह्यौ सुधा ससुधौटी ॥
मेली सजि मुख-अंबुज भीतर, उपजी उपमा मोटी ।
मनु बराह भूधर सह पुहुमी धरी दसन की कोटी ॥
नगन गात मुसकात तात ढिग, नृत्य करत गहि चोटी ।
सूरज प्रभु की लहै जु जूठनि, लारनि ललित लपोटी ॥

भावार्थ :-- श्यामसुन्दर के कर पर मक्खन और रोटी इस प्रकार शोभा दे रही है, मानो कमलने चंद्रमासे अपनी शत्रुता मनमें सोचकर (चन्द्रमासे छीनकर) अमृतपात्रके साथअमृत ले रखा है । (दाँतोंसे काटनेके लिये) रोटीको सँभालकर श्यामने मुखकमलमें डालाइससे मुखकी बड़ी शोभा हो गयी--(माखन-रोटी लिये वह मुख ऐसा लग रहा है) मानो वाराहभगवान् ने पर्वतों के साथ पृथ्वीको दाँतोंकी नोकपर उठा रखा है । दिगम्बर-शरीर मोहन बाबाके पास हँसते हुए अपनी चोटी पकड़े नृत्य कर रहे हैं । सूरदास अपने प्रभुकी सुन्दर अमृतमय) लारसे लिपटी जूँठन (इस जूठी रोटीका टुकड़ा) कहीं पा जाता (तो अपना अहोभाग्य मानता !)