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गुडिय़ा (1) / उर्मिला शुक्ल

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गुडिय़ा से खेलती बच्ची
पैठना चाहती है उसमें जानना चाहती है उसका
गुडिय़ापन
मगर
जाने कब और कैसे उसमें बैठ जाती है
गुडिय़ा।

दो-बच्ची को जन्म देकर
तुष्ट नहींहोता
मातृत्व
गर्व से उठता नहीं
मस्तक
अतृप्त मन
चाहने लगता है
कुछ और
गुडिय़ों के ढेर पर
बैठा उसे
करने लगता है उसके
गुडिय़ा बन जाने का
इंतजार