भारत की संस्कृति के लिए... भाषा की उन्नति के लिए... साहित्य के प्रसार के लिए

बार-बार जसुमति सुत बोधति / सूरदास

Kavita Kosh से
Pratishtha (चर्चा | योगदान) द्वारा परिवर्तित 23:18, 25 सितम्बर 2007 का अवतरण (New page: {{KKGlobal}} {{KKRachna |रचनाकार=सूरदास }} राग-कन्हारौ बार-बार जसुमति सुत बोधति, आउ चं...)

(अंतर) ← पुराना अवतरण | वर्तमान अवतरण (अंतर) | नया अवतरण → (अंतर)
यहाँ जाएँ: भ्रमण, खोज

राग-कन्हारौ

बार-बार जसुमति सुत बोधति, आउ चंद तोहि लाल बुलावै ।
मधु-मेवा-पकवान-मिठाई, आपुन खैहै, तोहि खवावै ॥
हाथहि पर तोहि लीन्हे खेलै नैकु नहीं धरनी बैठावै ।
जल-बासन कर लै जु उठावति, याही मैं तू तन धरि आवै ॥
जल-पुटि आनि धरनि पर राख्यौ, गहि आन्यौ वह चंद दिखावै ।
सूरदास प्रभु हँसि मुसुक्याने, बार-बार दोऊ कर नावै ॥


भावार्थ :-- श्रीयशोदाजी अपने पुत्र को चुप करने के लिये बार-बार कहती हैं-`चन्द्र! आओ । तुम्हें मेरा लाल बुला रहा है । यह मधु, मेवा, पकवान और मिठाइयाँ स्वयं खायेगा तथा तुम्हें भी खिलायेगा । तुम्हें हाथ पर ही रखकर (तुम्हारे साथ)खेलेगा, थोड़ी देरके लिये भी पृथ्वी पर नहीं बैठायेगा ।'फिर हाथ में पानी से भरा बर्तन उठाकर कहती हैं-`चन्द्रमा! तुम शरीर धारण करके इसी बर्तन में आ जाओ।' फिर जल का बर्तन लाकर पृथ्वी पर रख दिया और दिखाने लगीं-` लाल! वह चन्द्रमा मैं पकड़ लायी।' सूरदासजी कहते हैं कि (जलमें चन्द्रबिम्ब देखकर) मेरे प्रभु हँस पड़े और मुसकराते हुए दोनों हाथ (पानी में) डालने लगे ।