भारत की संस्कृति के लिए... भाषा की उन्नति के लिए... साहित्य के प्रसार के लिए

आँसुओं की कविता / मंगलेश डबराल

Kavita Kosh से
Lina niaj (चर्चा) द्वारा परिवर्तित 23:11, 3 जुलाई 2007 का अवतरण

यहाँ जाएँ: भ्रमण, खोज


पुराने ज़माने में आँसुओं की बहुत क़ीमत थी. वे मोतियों के बराबर

थे और उन्हें बहता देखकर सबके दिल काँप उठते थे. वे हरेक की

आत्मा के मुताबिक़ कम या ज़्यादा पारदर्शी होते थे और रोशनी को

सात से ज़्यादा रंगों में बाँट सकते थे.


बाद में आँखों को कष्ट न देने के लिए कुछ लोगों ने मोती ख़रीदे

और उन्हें महँगे और स्थायी आँसुओं की तरह पेश करने लगे. इस

तरह आँसुओं में विभाजन शुरू हुआ. असली आँसू धीरे-धीरे पृष्ठभूमि

में चले गये. दूसरी तरफ़ मोतियों का कारोबार ख़ूब फैल चुका है.


जो लोग अँधेरे में अकेले दीवार से माथा टिकाकर सचमुच रोते हैं

उनकी आँखों से बहुत देर बाद बमुश्किल आँसूनुमा एक चीज़ निकलती

है और उन्हीं के शरीर में गुम हो जाती है.


(रचनाकाल : 1989)