भारत की संस्कृति के लिए... भाषा की उन्नति के लिए... साहित्य के प्रसार के लिए

जसुमति कान्हहि यहै सिखावति / सूरदास

Kavita Kosh से
Pratishtha (चर्चा | योगदान) द्वारा परिवर्तित 00:53, 26 सितम्बर 2007 का अवतरण (New page: {{KKGlobal}} {{KKRachna |रचनाकार=सूरदास }} राग रामकली जसुमति कान्हहि यहै सिखावति ।<br> ...)

(अंतर) ← पुराना अवतरण | वर्तमान अवतरण (अंतर) | नया अवतरण → (अंतर)
यहाँ जाएँ: भ्रमण, खोज

राग रामकली


जसुमति कान्हहि यहै सिखावति ।
सुनहु स्याम, अब बड़े भए तुम, कहि स्तन-पान छुड़ावति ॥
ब्रज-लरिका तोहि पीवत देखत, लाज नहिं आवति ।
जैहैं बिगरि दाँत ये आछे, तातैं कहि समुझावति ॥
अजहुँ छाँड़ि कह्यौ करि मेरौ, ऐसी बात न भावति ।
सूर स्याम यह सुनि मुसुक्याने, अंचल मुखहि लुकावत ॥

भावार्थ :-- श्रीयशोदाजी कन्हाईको यही सिखला रही हैं कि `कन्हाई, सुनो! अब तुम बड़े हो गये।' यों कहकर उनका स्तन पीना छुड़ाती हैं । (वे कहती हैं-)व्रजके बालक तुम्हेंस्तन पीते देखकर हँसते हैं, तुम्हें लज्जा नहीं आती ? तुम्हारे ये अच्छे सुन्दर दाँत बिगड़ जायँगे, इससे तुम्हें बताकर समझा रही हूँ । अब भी तुम (यह स्वभाव)छोड़ दो, मेरा कहना मानो; ऐसी बात (हठ) अच्छी नहीं लगती । सूरदासजी कहते हैं कि यह सुनकर श्यामसुन्दर माता के अंचल में (दूध पीने के लिये) मुख छिपाते हुए मुसकरा पड़े ।