भारत की संस्कृति के लिए... भाषा की उन्नति के लिए... साहित्य के प्रसार के लिए

ग्वालिनि जौ घर देखै आइ / सूरदास

Kavita Kosh से
Pratishtha (चर्चा | योगदान) द्वारा परिवर्तित 02:47, 28 सितम्बर 2007 का अवतरण (New page: {{KKGlobal}} {{KKRachna |रचनाकार=सूरदास }}  राग-सारंग ग्वालिनि जौ घर देखै आइ ।<br> माखन ...)

(अंतर) ← पुराना अवतरण | वर्तमान अवतरण (अंतर) | नया अवतरण → (अंतर)
यहाँ जाएँ: भ्रमण, खोज



राग-सारंग


ग्वालिनि जौ घर देखै आइ ।
माखन खाइ चोराइ स्याम सब, आपुन रहे छपाइ ॥
ठाढ़ी भई मथनियाँ कैं ढिग, रीती परि कमोरी ।
अबहिं गई, आई इनि पाइनि, लै गयौ को करि चोरी ?
भीतर गई, तहाँ हरि पाए, स्याम रहे गहि पाइ ।
सूरदास प्रभु ग्वालिनि आगैं, अपनौं नाम सुनाइ ॥

भावार्थ :--जो घरमें आकर देखा तो (घरकी यह दशा थी कि) सब मक्खन चुराकर , खापीकर श्यामसुन्दर स्वयं छिप गये थे । वह अपने मटकेके पास खड़ी हुई तो (देखती क्या है कि) मटका खाली पड़ा है । (सोचने लगी-) `मैं अभी-अभी तो गयी थी और इन्हीं पैरों (बिना कहीं रुके) लौट आयी हूँ, इतनेमें कौन चोरी कर ले गया ?' भवनके भीतर गयी तो वहाँ कृष्णचन्द्र मिले । सूरदासजी कहते हैं कि ग्वालिनी के आगे अपना नाम बताकर मेरे स्वामी श्यामसुन्दरने उसके पैर पकड़ लिये ।