भारत की संस्कृति के लिए... भाषा की उन्नति के लिए... साहित्य के प्रसार के लिए
मायूसी / अजय मंगरा
Kavita Kosh से
आशिष पुरोहित (चर्चा | योगदान) द्वारा परिवर्तित 13:45, 8 मई 2012 का अवतरण ('{{KKGlobal}} {{KKRachna |रचनाकार=अजय मंगरा }} {{KKCatKavita}} <poem> खुद भी लाल कफन ...' के साथ नया पन्ना बनाया)
खुद भी लाल कफन ओढ़े हुए
वह देखो सूरज डूब रहा है
घंटों पहले अरमानों का
दिया जलाने आया था
खून में उन अरमानों को
लुढ़काते हुए अब डूब रहा है।
कल यह सूरज फिर निकलेगा
कल भी उन अरमानों का
नाहक खून दोबारा होगा
खुद भी लाल कफन ओढ़े हुए
वह देखो सूरज डूब रहा है