भारत की संस्कृति के लिए... भाषा की उन्नति के लिए... साहित्य के प्रसार के लिए
जेठ की धूप (चोका) / भावना कुँअर
Kavita Kosh से
वीरबाला (चर्चा | योगदान) द्वारा परिवर्तित 22:36, 29 जनवरी 2012 का अवतरण ('{{KKGlobal}} {{KKRachna |रचनाकार= भावना कुँअर }} {{KKCatKavita}} <poem> जेठ की धूप ब...' के साथ नया पन्ना बनाया)
जेठ की धूप
बनकर दुश्मन
जलाती तन
बिगाड़े सब रिश्ते।
बाज़ न आती
आग तक लगाती
न घबराती
हैं सब ही पिसते।
पूरे जंगल
धू-धू कर जलते
मूक रहते
हर दर्द सहते।
नन्हें -से पौधे
माँगते जब पानी
बनाकर वो
भाप जैसे उड़ाती।
गर्व करती
खूब ही अकड़ती
न ही थकती
पल भर में फिर
गर्म साँसें भरतीं।
-0-