भारत की संस्कृति के लिए... भाषा की उन्नति के लिए... साहित्य के प्रसार के लिए

ओ शिखर पुरुष / अंजू शर्मा

Kavita Kosh से
Dr. ashok shukla (चर्चा | योगदान) द्वारा परिवर्तित 10:57, 20 मई 2012 का अवतरण ('{{KKGlobal}} {{KKRachna |रचनाकार= अंजू शर्मा |संग्रह=औरत होकर सवाल क...' के साथ नया पन्ना बनाया)

(अंतर) ← पुराना अवतरण | वर्तमान अवतरण (अंतर) | नया अवतरण → (अंतर)
यहाँ जाएँ: भ्रमण, खोज


ओ शिखर पुरुष,
हिमालय से भी ऊंचे हो तुम
और मैं दूर से निहारती, सराहती
क्या कभी छू पाऊँगी तुम्हे,
तुम गर्वित मस्तक उठाये
देखते हो सिर्फ आकाश को,
जहाँ तुम्हारे साथी हैं दिनकर और शशि,
और मैं धरा के एक कण की तरह,
तुम तक पहुँच पाने की आस में
उठती हूँ और गिर जाती हूँ बार बार,
उलझी हैं मेरे पावों में
कई बेलें मापदंडों की,
तय करनी हैं कई पगडंडियाँ मानकों की,


अवधारणाओं के जंगलों से गुजरकर,
मान्यताओं की सीढ़ी चढ़कर,
क्या कभी पहुँच पाऊंगी तुम तक,
या तब तक तुम हो जाओगे
आकाश से भी ऊँचे


यदि गिर गयी मैं किसी
गहरी खाई में
क्या दोगे अपना हाथ मुझे सँभालने को
...