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नन्हा हाइकु / सुधा गुप्ता
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कच्ची नींद में
आया एक हाइकु
फिर खो गया
बड़ी बेचैन हुई
ढूँढती रही
जागते बीती रात
पर न मिला
बड़ा शरारती है
ख़ूब छकाता
लुका-छिपी का खेल
उसे है भाता
करता खिलवाड़
मन मौजी है
जी-भर के सताता
नींद उड़ा के
वो ख़ुद छिप जाता
बड़ी लाचारी
सोच-सोच के हारी
हो गई भोर
पाखी करते शोर
अरे, क्या हुआ
कहाँ वह खो गया?
अधूरी नींद
बोझिल माथा लिये
भारी मन से
सुबह आ ही गई...
अब जो मिला
कर लूँगी कैद मैं
शब्द-कारा में
डर सिर्फ़ यही है
फिसल जाये
कहीं वक्त-धारा में
ओ मेरे नन्हें!
तुझे तरस आता
तो छोड़ कर
तू यूँ बिला न जाता
आ गले लग जाता
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