भारत की संस्कृति के लिए... भाषा की उन्नति के लिए... साहित्य के प्रसार के लिए

बोलि लियौ बलरामहि जसुमति / सूरदास

Kavita Kosh से
Pratishtha (चर्चा | योगदान) द्वारा परिवर्तित 19:50, 1 अक्टूबर 2007 का अवतरण (New page: {{KKGlobal}} {{KKRachna |रचनाकार=सूरदास }} राग सारंग बोलि लियौ बलरामहि जसुमति । लाल स...)

(अंतर) ← पुराना अवतरण | वर्तमान अवतरण (अंतर) | नया अवतरण → (अंतर)
यहाँ जाएँ: भ्रमण, खोज

राग सारंग


बोलि लियौ बलरामहि जसुमति । लाल सुनौ हरि के गुन , काल्हिहि तैं लँगरई करत अति ॥ स्यामहि जान देहि मेरैं सँग, तू काहैं डर मानति । मैं अपने ढिग तैं नहिं टारौं, जियहिं प्रतीति न आनति ॥ हँसी महरि बल की बतियाँ सुनि, बलिहारी या मुख की । जाहु लिवाइ सूर के प्रभु कौं, कहति बीर के रुख की ॥

यशोदा जी ने बलराम को बुला लिया (और बोलीं-) `लाल! तुम इस श्याम के गुण तो सुनो, कल से ही यह अत्यन्त चपलता कर रहा है ।' (बलराम बोले-) `श्याम को मेरे साथ जाने दो, तुम भय क्यों करती हो । अपने मन में विश्वास क्यों नहीं करती - मैं अपने पास से इसे तनिक भी हटने नहीं दूँगा ।' व्रजरानी बलराम जी की बातें सुनकर हँस पड़ी (और बोलीं-)`इस मुख की बलिहारी, अच्छा इसे ले जाओ।' सूरदास जी कहते हैं कि इस प्रकार (मैया ने) भाई (श्रीकृष्ण) के मन की बात कह दी ।