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भादों की उमस / अज्ञेय
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सहम कर थम से गए हैं बोल बुलबुल के,
मुग्ध, अनझिप रह गए हैं नेत्र पाटल के,
उमस में बेकल, अचल हैं पात चलदल के,
नियति मानों बँध गई है व्यास में पल के ।
लास्य कर कौंधी तड़ित् उर पार बादल के,
वेदना के दो उपेक्षित वीर-कण ढलके
प्रश्न जागा निम्नतर स्तर बेध हृत्तल के—
छा गए कैसे अजाने, सहपथिक कल के ?