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आओ एक खेल खेलें / अज्ञेय

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आओ, एक खेल खेलें!
मैं आदिम पुरुष बनूँगा, तुम पहली मानव-वधुका।
पहला पातक अपना ही हो परिणय, यौवन-मधु का!
पथ-विमुख करे वह, जग की कुत्सा का पात्र बनावे;
दृढ़ नाग-पाश में बाँधे पाताल-लोक ले जावे!
निज जीवन का सुख ले लें!
मत मिथ्या व्रीडा से तुम नत करो दीप्त मुख अपना-
मिथ्या भय की कम्पन में मत उलझाओ सुख-सपना!
इस सुमन-कुंज से अपना प्रभु बहिष्कार कर देंगे?
उन के आज्ञापन की हम मुँहजोही ही न करेंगे!
हम उत्पीडऩ क्यों झेलें?
हम उन के सही खिलौने- क्यों अपना खेल भुलावें?
कन्दरा किसी में अपनी हम क्रीडास्थली बनावें!
लज्जा, कुत्सा, पातक की पनपे वह अभिनव खेला,
परिणय की छाया में हूँ मैं तेरे साथ अकेला!
आदिम प्रेमांजलि दे लें!
आओ, एक खेल खेलें!

लाहौर किला, 26 मार्च, 1934