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बनारस में पिंडदान / लीना मल्होत्रा

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घाट जब मंत्रों की भीनी मदिरा पीकर बेहोश हो जाते हैं
तब भी जागती रहती हैं घाट की सीढियाँ
गंगा ख़ामोश नावों में भर-भर के लाती हैं पुरखे
बनारस की सोंधी सड़कों से गिरते पड़ते आते हैं पगलाए हुए पुत्र,

पिंड के आटे में बेटे चुपचाप गूँथ देते हैं अपना अफ़सोस
अँजुरी भर उदासी जल में घोल नहला देते हैं पिता को
रोली-मोली से सज्जित कुपित पिता
नही कह पाते वो शिकायतें
जो इतनी सरल थीं की उन्हें बेटों के अलावा कोई भी समझ सकता था
और इस नासमझी पर बेटे को शहर से निकाल दिया जाना चाहिए था
किन्तु
तब भी जानते थे पिता बेटे के निर्वासन से शहर वीरान हो जाएँगे

भूखे पिता यात्रा पर निकलने से पहले खा लेते हैं
जौ और काले तिल बेटे के हाथ से
चूम कर विवश बेटे का हाथ एक बार फिर उतर जाते हैं पिता घाट की सीढ़ियाँ

घाट की सीढ़ियाँ बेटियों सी पढ़ लेती हैं अनकहा इस बार भी
सघन हो उठती है रहस्यों से हवाएँ
और बनारस अबूझ पहेली की तरह डटा रहता है
डूबता है बहता नही....
शांति में
घंटियों में
मंत्रों में
शोर में
गंगा में....