भारत की संस्कृति के लिए... भाषा की उन्नति के लिए... साहित्य के प्रसार के लिए
तुम्हारी तरह / पवन कुमार
Kavita Kosh से
Mani Gupta (चर्चा | योगदान) द्वारा परिवर्तित 07:02, 26 अप्रैल 2013 का अवतरण ('{{KKGlobal}} {{KKRachna |रचनाकार=पवन कुमार }} {{KKCatNazm}} <poem> हवा जो छू के ग...' के साथ नया पन्ना बनाया)
हवा जो
छू के
गुजरती है
मुझे
उसमें खुश्बू बसी है
तुम्हारी तरह।
ये नदिया जो बहती है
इसमें
इक सादगी है
तुम्हारी तरह।
रंग धानी है हरसू
बिखरा हुआ
इस जमीं का है
ये
पैरहन है
तुम्हारी तरह।
बे मकसद हैं
राहें यहाँ की सभी
मगर
चलती जातीं हैं
तुम्हारी तरह।
दिन को लोरी सुना के
सुलाते हुए
रात जाग जाती है बस
तुम्हारी तरह।
और भी बहुत कुछ है
तुम्हारी तरह
किसी ने तो खींचे हैं
तुम्हारे ही नक़्श
इन
फिज़ाओं में।