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कब? / जयशंकर प्रसाद

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शून्य हृदय में प्रेम-जलद-माला कब फिर घिर आवेगी?

वर्षा इन आँखों से होगी, कब हरियाली छावेगी?

रिक्त हो रही मधु से सौरभ सूख रहा है आतप हैं;

सुमन कली खिलकर कब अपनी पंखुड़ियाँ बिखरावेगी?

लम्बी विश्व कथा में सुख की निद्रा-सी इन आँखों में-

सरस मधुर छवि शान्त तुम्हारी कब आकर बस जावेगी?

मन-मयूर कब नाच उठेगा कादंबिनी छटा लखकर;

शीतल आलिंगन करने को सुरभि लहरियाँ आवेगी?

बढ़ उमंग-सरिता आवेगी आर्द्र किये रूखी सिकता;

सकल कामना स्रोत लीन हो पूर्ण विरति कब पावेगी?