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कबीर दोहावली / पृष्ठ ९

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कुल खोये कुल ऊबरै, कुल राखे कुल जाय ।

राम निकुल कुल भेटिया, सब कुल गया बिलाय ॥ 801 ॥



दुनिया के धोखे मुआ, चला कुटुम की कानि ।

तब कुल की क्या लाज है, जब ले धरा मसानि ॥ 802 ॥



दुनिया सेती दोसती, मुआ, होत भजन में भंग ।

एका एकी राम सों, कै साधुन के संग ॥ 803 ॥



यह तन काँचा कुंभ है, यहीं लिया रहिवास ।

कबीरा नैन निहारिया, नाहिं जीवन की आस ॥ 804 ॥



यह तन काँचा कुंभ है, चोट चहूँ दिस खाय ।

एकहिं गुरु के नाम बिन, जदि तदि परलय जाय ॥ 805 ॥



जंगल ढेरी राख की, उपरि उपरि हरियाय ।

ते भी होते मानवी, करते रंग रलियाय ॥ 806 ॥



मलमल खासा पहिनते, खाते नागर पान ।

टेढ़ा होकर चलते, करते बहुत गुमान ॥ 807 ॥



महलन माही पौढ़ते, परिमल अंग लगाय ।

ते सपने दीसे नहीं, देखत गये बिलाय ॥ 808 ॥



ऊजल पीहने कापड़ा, पान-सुपारी खाय ।

कबीर गुरू की भक्ति बिन, बाँधा जमपुर जाय ॥ 809 ॥



कुल करनी के कारने, ढिग ही रहिगो राम ।

कुल काकी लाजि है, जब जमकी धूमधाम ॥ 810 ॥



कुल करनी के कारने, हंसा गया बिगोय ।

तब कुल काको लाजि है, चाकिर पाँव का होय ॥ 811 ॥



मैं मेरी तू जानि करै, मेरी मूल बिनास ।

मेरी पग का पैखड़ा, मेरी गल की फाँस ॥ 812 ॥



ज्यों कोरी रेजा बुनै, नीरा आवै छौर ।

ऐसा लेखा मीच का, दौरि सकै तो दौर ॥ 813 ॥



इत पर धर उत है धरा, बनिजन आये हाथ ।

करम करीना बेचि के, उठि करि चालो काट ॥ 814 ॥



जिसको रहना उतघरा, सो क्यों जोड़े मित्र ।

जैसे पर घर पाहुना, रहै उठाये चित्त ॥ 815 ॥



मेरा संगी कोई नहीं, सबै स्वारथी लोय ।

मन परतीत न ऊपजै, जिय विस्वाय न होय ॥ 816 ॥



मैं भौंरो तोहि बरजिया, बन बन बास न लेय ।

अटकेगा कहुँ बेलि में, तड़फि- तड़फि जिय देय ॥ 817 ॥



दीन गँवायो दूनि संग, दुनी न चली साथ ।

पाँच कुल्हाड़ी मारिया, मूरख अपने हाथ ॥ 818 ॥



तू मति जानै बावरे, मेरा है यह कोय ।

प्रान पिण्ड सो बँधि रहा, सो नहिं अपना होय ॥ 819 ॥



या मन गहि जो थिर रहै, गहरी धूनी गाड़ि ।

चलती बिरयाँ उठि चला, हस्ती घोड़ा छाड़ि ॥ 820 ॥



तन सराय मन पाहरू, मनसा उतरी आय ।

कोई काहू का है नहीं, देखा ठोंकि बजाय ॥ 821 ॥



डर करनी डर परम गुरु, डर पारस डर सार ।

डरत रहै सो ऊबरे, गाफिल खाई मार ॥ 822 ॥



भय से भक्ति करै सबै, भय से पूजा होय ।

भय पारस है जीव को, निरभय होय न कोय ॥ 823 ॥



भय बिन भाव न ऊपजै, भय बिन होय न प्रीति ।

जब हिरदै से भय गया, मिटी सकल रस रीति ॥ 824 ॥



काल चक्र चक्की चलै, बहुत दिवस औ रात ।

सुगन अगुन दोउ पाटला, तामें जीव पिसात ॥ 825 ॥



बारी-बारी आपने, चले पियारे मीत ।

तेरी बारी जीयरा, नियरे आवै नीत ॥ 826 ॥



एक दिन ऐसा होयगा, कोय काहु का नाहिं ।

घर की नारी को कहै, तन की नारी जाहिं ॥ 827 ॥



बैल गढ़न्ता नर, चूका सींग रू पूँछ ।

एकहिं गुरुँ के ज्ञान बिनु, धिक दाढ़ी धिक मूँछ ॥ 828 ॥



यह बिरियाँ तो फिर नहीं, मनमें देख विचार ।

आया लाभहिं कारनै, जनम जुवा मति हार ॥ 829 ॥



खलक मिला खाली हुआ, बहुत किया बकवाद ।

बाँझ हिलावै पालना, तामें कौन सवाद ॥ 830 ॥



चले गये सो ना मिले, किसको पूछूँ जात ।

मात-पिता-सुत बान्धवा, झूठा सब संघात ॥ 831 ॥



विषय वासना उरझिकर जनम गँवाय जाद ।

अब पछितावा क्या करे, निज करनी कर याद ॥ 832 ॥


हे मतिहीनी माछीरी! राखि न सकी शरीर ।

सो सरवर सेवा नहीं , जाल काल नहिं कीर ॥ 833 ॥



मछरी यह छोड़ी नहीं, धीमर तेरो काल ।

जिहि जिहि डाबर धर करो, तहँ तहँ मेले जाल ॥ 834 ॥



परदा रहती पदुमिनी, करती कुल की कान ।

घड़ी जु पहुँची काल की, छोड़ भई मैदान ॥ 835 ॥



जागो लोगों मत सुवो, ना करूँ नींद से प्यार ।

जैसा सपना रैन का, ऐसा यह संसार ॥ 836 ॥



क्या करिये क्या जोड़िये, तोड़े जीवन काज ।

छाड़ि छाड़ि सब जात है, देह गेह धन राज ॥ 837 ॥



जिन घर नौबत बाजती, होत छतीसों राग ।

सो घर भी खाली पड़े, बैठने लागे काग ॥ 838 ॥



कबीर काया पाहुनी, हंस बटाऊ माहिं ।

ना जानूं कब जायगा, मोहि भरोसा नाहिं ॥ 839 ॥



जो तू परा है फंद में निकसेगा कब अंध ।

माया मद तोकूँ चढ़ा, मत भूले मतिमंद ॥ 840 ॥



अहिरन की चोरी करै, करै सुई का दान ।

ऊँचा चढ़ि कर देखता, केतिक दुरि विमान ॥ 841 ॥



नर नारायन रूप है, तू मति समझे देह ।

जो समझै तो समझ ले, खलक पलक में खोह ॥ 842 ॥



मन मुवा माया मुई, संशय मुवा शरीर ।

अविनाशी जो न मरे, तो क्यों मरे कबीर ॥ 843 ॥



मरूँ- मरूँ सब कोइ कहै, मेरी मरै बलाय ।

मरना था तो मरि चुका, अब को मरने जाय ॥ 844 ॥



एक बून्द के कारने, रोता सब संसार ।

अनेक बून्द खाली गये, तिनका नहीं विचार ॥ 845 ॥



समुझाये समुझे नहीं, धरे बहुत अभिमान ।

गुरु का शब्द उछेद है, कहत सकल हम जान ॥ 846 ॥



राज पाट धन पायके, क्यों करता अभिमान ।

पड़ोसी की जो दशा, भई सो अपनी जान ॥ 847 ॥



मूरख शब्द न मानई, धर्म न सुनै विचार ।

सत्य शब्द नहिं खोजई, जावै जम के द्वार ॥ 848 ॥



चेत सवेरे बाचरे, फिर पाछे पछिताय ।

तोको जाना दूर है, कहैं कबीर बुझाय ॥ 849 ॥



क्यों खोवे नरतन वृथा, परि विषयन के साथ ।

पाँच कुल्हाड़ी मारही, मूरख अपने हाथ ॥ 850 ॥



आँखि न देखे बावरा, शब्द सुनै नहिं कान ।

सिर के केस उज्ज्वल भये, अबहु निपट अजान ॥ 851 ॥



ज्ञानी होय सो मानही, बूझै शब्द हमार ।

कहैं कबीर सो बाँचि है, और सकल जमधार ॥ 852 ॥



॥ काल के विषय मे दोहे ॥




जोबन मिकदारी तजी, चली निशान बजाय ।

सिर पर सेत सिरायचा दिया बुढ़ापै आय ॥ 853 ॥



कबीर टुक-टुक चोंगता, पल-पल गयी बिहाय ।

जिव जंजाले पड़ि रहा, दियरा दममा आय ॥ 854 ॥



झूठे सुख को सुख कहै, मानत है मन मोद ।

जगत् चबैना काल का, कछु मूठी कछु गोद ॥ 855 ॥



काल जीव को ग्रासई, बहुत कह्यो समुझाय ।

कहैं कबीर में क्या करूँ, कोई नहीं पतियाय ॥ 856 ॥



निश्चय काल गरासही, बहुत कहा समुझाय ।

कहैं कबीर मैं का कहूँ, देखत न पतियाय ॥ 857 ॥



जो उगै तो आथवै, फूलै सो कुम्हिलाय ।

जो चुने सो ढ़हि पड़ै, जनमें सो मरि जाय ॥ 858 ॥



कुशल-कुशल जो पूछता, जग में रहा न कोय ।

जरा मुई न भय मुवा, कुशल कहाँ ते होय ॥ 859 ॥



जरा श्वान जोबन ससा, काल अहेरी नित्त ।

दो बैरी बिच झोंपड़ा कुशल कहाँ सो मित्र ॥ 860 ॥



बिरिया बीती बल घटा, केश पलटि भये और ।

बिगरा काज सँभारि ले, करि छूटने की ठौर ॥ 861 ॥



यह जीव आया दूर ते, जाना है बहु दूर ।

बिच के बासे बसि गया, काल रहा सिर पूर ॥ 862 ॥



कबीर गाफिल क्यों फिरै क्या सोता घनघोर ।

तेरे सिराने जम खड़ा, ज्यूँ अँधियारे चोर ॥ 863 ॥



कबीर पगरा दूर है, बीच पड़ी है रात ।

न जानों क्या होयेगा, ऊगन्ता परभात ॥ 864 ॥



कबीर मन्दिर आपने, नित उठि करता आल ।

मरहट देखी डरपता, चौडढ़े दीया डाल ॥ 865 ॥



धरती करते एक पग, समुंद्र करते फाल ।

हाथों परबत लौलते, ते भी खाये काल ॥ 866 ॥



आस पास जोधा खड़े, सबै बजावै गाल ।

मंझ महल से ले चला, ऐसा परबल काल ॥ 867 ॥



चहुँ दिसि पाका कोट था, मन्दिर नगर मझार ।

खिरकी खिरकी पाहरू, गज बन्दा दरबार ॥


चहुँ दिसि ठाढ़े सूरमा, हाथ लिये हाथियार ।

सबही यह तन देखता, काल ले गया मात ॥ 868 ॥



हम जाने थे खायेंगे, बहुत जिमि बहु माल ।

ज्यों का त्यों ही रहि गया, पकरि ले गया काल ॥ 869 ॥



काची काया मन अथिर, थिर थिर कर्म करन्त ।

ज्यों-ज्यों नर निधड़क फिरै, त्यों-त्यों काल हसन्त ॥ 870 ॥



हाथी परबत फाड़ते, समुन्दर छूट भराय ।

ते मुनिवर धरती गले, का कोई गरब कराय ॥ 871 ॥



संसै काल शरीर में, विषम काल है दूर ।

जाको कोई जाने नहीं, जारि करै सब धूर ॥ 872 ॥



बालपना भोले गया, और जुवा महमंत ।

वृद्धपने आलस गयो, चला जरन्ते अन्त ॥ 873 ॥



बेटा जाये क्या हुआ, कहा बजावै थाल ।

आवन-जावन होय रहा, ज्यों कीड़ी का नाल ॥ 874 ॥




ताजी छूटा शहर ते, कसबे पड़ी पुकार ।

दरवाजा जड़ा ही रहा, निकस गया असवार ॥ 875 ॥



खुलि खेलो संसार में, बाँधि न सक्कै कोय ।

घाट जगाती क्या करै, सिर पर पोट न होय ॥ 876 ॥



घाट जगाती धर्मराय, गुरुमुख ले पहिचान ।

छाप बिना गुरु नाम के, साकट रहा निदान ॥ 877 ॥



संसै काल शरीर में, जारि करै सब धूरि ।

काल से बांचे दास जन जिन पै द्दाल हुजूर ॥ 878 ॥



ऐसे साँच न मानई, तिलकी देखो जाय ।

जारि बारि कोयला करे, जमते देखा सोय ॥ 879 ॥



जारि बारि मिस्सी करे, मिस्सी करि है छार ।

कहैं कबीर कोइला करै, फिर दै दै औतार ॥ 880 ॥



काल पाय जब ऊपजो, काल पाय सब जाय ।

काल पाय सबि बिनिश है, काल काल कहँ खाय ॥ 881 ॥



पात झरन्ता देखि के, हँसती कूपलियाँ ।

हम चाले तु मचालिहौं, धीरी बापलियाँ ॥ 882 ॥



फागुन आवत देखि के, मन झूरे बनराय ।

जिन डाली हम केलि, सो ही ब्योरे जाय ॥ 883 ॥



मूस्या डरपैं काल सों, कठिन काल को जोर ।

स्वर्ग भूमि पाताल में जहाँ जावँ तहँ गोर ॥ 884 ॥



सब जग डरपै काल सों, ब्रह्मा, विष्णु महेश ।

सुर नर मुनि औ लोक सब, सात रसातल सेस ॥ 885॥

कबीरा पगरा दूरि है, आय पहुँची साँझ ।

जन-जन को मन राखता, वेश्या रहि गयी बाँझ ॥ 886 ॥



जाय झरोखे सोवता, फूलन सेज बिछाय ।

सो अब कहँ दीसै नहीं, छिन में गयो बोलाय ॥ 887 ॥



काल फिरे सिर ऊपरै, हाथों धरी कमान ।

कहैं कबीर गहु ज्ञान को, छोड़ सकल अभिमान ॥ 888 ॥



काल काल सब कोई कहै, काल न चीन्है कोय ।

जेती मन की कल्पना, काल कहवै सोय ॥ 889 ॥



॥ उपदेश ॥




काल काम तत्काल है, बुरा न कीजै कोय ।

भले भलई पे लहै, बुरे बुराई होय ॥ 890 ॥



काल काम तत्काल है, बुरा न कीजै कोय ।

अनबोवे लुनता नहीं, बोवे लुनता होय ॥ 891 ॥



लेना है सो जल्द ले, कही सुनी मान ।

कहीं सुनी जुग जुग चली, आवागमन बँधान ॥ 892 ॥



खाय-पकाय लुटाय के, करि ले अपना काम ।

चलती बिरिया रे नरा, संग न चले छदाम ॥ 893 ॥



खाय-पकाय लुटाय के, यह मनुवा मिजमान ।

लेना होय सो लेई ले, यही गोय मैदान ॥ 894 ॥



गाँठि होय सो हाथ कर, हाथ होय सी देह ।

आगे हाट न बानिया, लेना होय सो लेह ॥ 895 ॥



देह खेह खोय जायगी, कौन कहेगा देह ।

निश्चय कर उपकार ही, जीवन का फल येह ॥ 896 ॥



कहै कबीर देय तू, सब लग तेरी देह ।

देह खेह होय जायगी, कौन कहेगा देह ॥ 897 ॥



देह धरे का गुन यही, देह देह कछु देह ।

बहुरि न देही पाइये, अकी देह सुदेह ॥ 898 ॥



सह ही में सत बाटई, रोटी में ते टूक ।


कहैं कबीर ता दास को, कबहुँ न आवे चूक ॥ 899 ॥



कहते तो कहि जान दे, गुरु की सीख तु लेय ।

साकट जन औ श्वान को, फेरि जवाब न देय ॥ 900 ॥




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