भारत की संस्कृति के लिए... भाषा की उन्नति के लिए... साहित्य के प्रसार के लिए
पानी के बाहर भी / अनूप अशेष
Kavita Kosh से
अनिल जनविजय (चर्चा | योगदान) द्वारा परिवर्तित 00:19, 27 जून 2013 का अवतरण ('{{KKGlobal}} {{KKRachna |रचनाकार=अनूप अशेष |अनुवादक= |संग्रह= }} {{KKCatNavge...' के साथ नया पन्ना बनाया)
मोड़ इसमें कई यह
लम्बा सफ़र है।।
देह डूबी हुई
धानी धान सी
जीन सूखी
रची
बासी पान-सी।
एक कोने में छिपा
दुर्दिन का डर है।।
आलता रंग-सी
सुए की चोंच-सी
ऊँचे-नीचे
दिनों की
यह मोंच-सी।
छाँह के संबंध में भी
धूप-फर है।।
आँख ओठों बीच
बैठी सदी-सी,
ज़िन्दगी है
बाल खोले
नदी-सी।
जीने-मरने को कहीं
रस्ते का घर है।