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लबों पे नर्म तबस्सुम / अहमद नदीम क़ासमी

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लबों पे नर्म तबस्सुम रचा कि धुल जाएं
ख़ुदा करे मेरे आंसू किसी के काम आएं

जो इब्तदा-ए-सफ़र में दिए बुझा बैठे
वो बदनसीब किसी का सुराग़ क्या पाएं

तलाश-ए-हुस्न कहां ले चली ख़ुदा जाने
उमंग थी कि फ़क़त जि़न्दगी को अपनाएं

बुला रहे है उफ़क़ पर जो ज़र्द-रू टीले
कहो तो हम भी फ़साने के राज़ हो जाएं

न कर ख़ुदा के लिए बार-बार जि़क्र-ए-बहिश्त
हम आस्मां का मुकरर्र फ़रेब क्यों खाएं

तमाम मयकदा सुनसान मयगुसार उदास
लबों को खोल कर कुछ सोचती हैं मीनाएं