ख़ुद-कुशी / नून मीम राशिद
कर चुका हूँ आज अज़्म-ए-आखिरी शाम से पहले ही कर देता था मै। चाट कर दीवार को नोक-ए-ज़बाँ से ना-तवाँ सुब्ह होने तक वो हो जाती थी दोबारा बुलंद रात को जब घर का रूख़ करता था मैं तीरगी को देखता था सिर-निगूँ मुँह बसोरे रह-गुज़ारों से लिपटते सोग-वार घर पहुँचता था मैं इंसानों से उकताया हुआ मेरा अज़्म-ए-आख़िरी ये है के मैं कूद जाऊँ सातवी मंज़िल से आज ! आज मैंने पा लिया ज़िंदगी को बे-नक़ाब आता जाता था बड़ी मुद्दत से मैं एक इश्वा-साज़ ओ हर्ज़ा-कार महबूबा के पास उस के तख़्त-ए-ख़्वाब के नीचे मगर आज मैंने देख पाया है लहू ताज़ा ओ रख़्शां लहू बू-ए-मय में बू-ए-खूँ उलझी हुई ! वो अभी तक ख़्वाब-गह में लौट कर आई नहीं और मैं कर भी चुका हूँ अपना अज़्म-ए-आख़िरी ! जी में आई है लगा दूँ एक बे-बाकाना जस्त उस दरीचे में से जो झाँकता है सातवीं मंज़िल से कु-ए-बाम को !
शाम से पहले ही कर देता था मैं चाट कर दीवार को नोक-ए-ज़बाँ से ना-तावाँ सुब्ह होने तक वो हो जाती थी दोबरा बुलंद आज तो आखिर हम-आगोश-ए-ज़मीं हो जाएगी ! </poem>