भारत की संस्कृति के लिए... भाषा की उन्नति के लिए... साहित्य के प्रसार के लिए

पीर के कुछ बीज / कविता वाचक्नवी

Kavita Kosh से
चंद्र मौलेश्वर (चर्चा | योगदान) द्वारा परिवर्तित 12:07, 18 जून 2009 का अवतरण (नया पृष्ठ: {{KKGlobal}} {{KKRachna |रचनाकार=कविता वाचक्नवी }} <poem> '''पीर के कुछ बीज''' पीर के कुछ ...)

(अंतर) ← पुराना अवतरण | वर्तमान अवतरण (अंतर) | नया अवतरण → (अंतर)
यहाँ जाएँ: भ्रमण, खोज

पीर के कुछ बीज


पीर के कुछ बीज
जिस दिन बो दिए
अंतःकरण में
थी उसी दिन से प्रतीक्षा
एक दिन अंकुर उगेंगे,
अंकुरित होंगे
कभी इस रूप में ये
क्या पता था
गीत, कविता, छंद बनकर।

चिर पृथ्वी के हृदय को
फूट पड़ते हैं
कभी भी ये
किसी भी पल
कहीं भी
और मेंड़ों की लकीरें
खींचता है, मन हमारा।

एक निश्चित क्रम नहीं तो
सूख कर ये, झर पड़ेंगे
इसलिए
हर छंद की जड़ में
बहुत आँसू भरे हैं
लहलहाता देखने को।
चाहती हूँ - ये
किसी का
ताप हर लें
तपन हर लें
छाँह दें
विश्राम दें
दें गंध अपनी
और ऊँचे उठ
सभी ये।